व्यंग्य -विनोद की चाशनी में डुबाकर परोसा गईं पुरानी कहानियाँ (पुरानी कहानियाँ नए अंदाज़ में) सीरीज (7):
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रंगा सियार और नीला बनने की क्रीम
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एक जंगल में एक चतुर सियार रहता था.जंगल के सभी जानवर उसकी चतुरता के प्राय: शिकार होते रहते थे.यहां तक कि बाकी के सियार भी उससे तंग रहते क्यों कि वो ख़ुद को सबसे श्रेष्ठ समझता था और यहां की बात वहां लगाकर सब में फूट डालता था. वैसे यह तो शासन में रहने वाले मनुष्यों की नीति हुआ करती है -फूट डालो और राज करो .पता नहीं यह कला उस सियार ने मनुष्यों से कब और कहाँ सीखी? उसदिन वह सियार शिकार की तलाश में जंगल से काफ़ी दूर निकल आया और एक बस्ती में जा पहुंचा. वहां कुत्तों की टोली सियार के पीछे पड़ गई. सियार जान बचाने के लिए भागा और भागते-भागते वो एक रंग से भरे ड्रम में जा गिरा. वो चुपचाप उस ड्रम में ही पड़ा रहा. जब उसे लगा कि ख़तरा टल गया, तो वो ड्रम से बाहर आया, लेकिन तब तक उसका पूरा शरीर ड्रम में भरे नीले रंग से रंग चुका था.पता नहीं वह बदला हुआ रंग उस ड्रम की वजह से था सा या भय से ही वह नीला पड़ गया था. खैर वो जंगल में वापस आया, तो उसने देखा कि उसके नीले रंग को देखकर सभी जानवर आश्चर्य कर रहे हैं और मन ही मन उसको अपने से अलग और श्रेष्ठ समझने लगे हैं. चमड़ी के रंग पर आधारित भेद की बीमारी जानवरों में भी मनुष्य से ही आई होगी. सभी जानवरों को रंगे सियार ने आवाज़ दी, “मेरी बात सुनो. मेरी तरफ़ देखो ,मेरा रंग कितना अलग है. ऐसा रंग किसी जानवर का नहीं है".
क्या मैं तुम्हें अच्छा लग रहा हूँ? क्या मैं तुम्हारे साथ रह सकता हूँ? युवा शेरनी उसे देखते ही पहली नजर में दिल दे बैठी थी. वह उसे अपने साथ ले चली. अब वह शेरनी का नया प्रेमी था. शिकार वह लाती,सारे जंगल में उसे शान से ले कर घूमती. अन्य युवा पशुओं के सीने में साँप लोट जाता. धीरे-धीरे युवा जानवरअपने-अपने प्रेमियों को लुभाने और रक़ीबों को हराने की होड़ में रंगे सियार से नीला बनने के राज जानने आने लगे. अवसर का लाभ उठा कर अब वह नीला बनने की क्रीम बेच रहा है जो जंगल की जड़ी बूटियों से तैयार होती है. आज तक कोई उसके इस्तेमाल से नीला नहीं हुआ फिर भी उस की बिक्री हर साल बढती ही जाती है.
पुछल्ला (Tailpiece)
सियार की इस क्रीम पर वैधानिक चेतावनी दर्ज है :सिर्फ जानवरो के इस्तेमाल हेतु, मनुष्य इससे दूर रहें. अत: यदि आप का कोई ऐसा-वैसा इरादा बन रहा हो तो उसे त्याग दें.
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