Friday, September 22, 2017

A Satire :जागो सोने वालों , सुनो मेरी कहानी

13सितम्बर,2017 की पोस्ट से आगे की कहानी...

डान क्विगजोट की रेल यात्रा

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जनाब अकबर इलाहाबादी साहब बहुत पहले फरमा गये हैं:-

 "फ़लसफ़ी को बहस के अंदर खुदा मिलता नहीं

  डोर को सुलझा रहा है और सिरा मिलता नहीं "

          शायद रेल की इस बोगी में हो रही जैसी किसी बहस से रूबरू होने पर यह शेर पढ़ा गया होगा.वैसे तो शायर खुद न्यायाधीष थे और संपूर्ण न्याय व्यवस्था वकीलों की बहस पर ही टिकी हुई है. न्याय व्यवस्था ही क्यों, हमारी प्रजातांत्रिक    प्रणाली भी तो बहस आधारित ही है. खैर,हमारे दोस्त डान क्विगजोट को एक कुली की मदद से रेल टिकट,रिज़र्वेशन और निरा धार पहचान पत्र प्लेटफार्म पर ही उपलब्ध हो गया.आप जानते ही हैं कि जेब में अगर पैसे हों तो हमारे महान देश में क्या नहीं उपलब्ध हो सकता ?

              यात्रियों का एक वर्ग जो अपने-आप को जागरूक,जानकार और होशियार समझने के मुगालते में था ,यात्रा के आरंभ से ही बहस की भूलभुलैयां में प्रवेश कर गया.सभी अपने तर्क,कुतर्क सहयात्रियों की सुविधा-असुविधा की घोर उपेक्षा करते हुए सप्तम स्वरों में प्रस्तुत कर अपने को जिम्मेदार नागरिक सिद्ध कर रहे थे.कुछ युवा सहयात्री अपने -अपने लेपटॉप,इयर फोन आदि का सदुपयोग करते हुए इन सांसारिक बाधाओं से विरत 'वर्चुअल दुनिया' के रोमांच के लालच में घनघोर तपस्या में रत थे. दोनों ही वर्ग का राष्ट्रीय,अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं से कोई वास्ता न था. एक को बहस का नशा था और दूजा वर्चुअल दुनिया के रोमांचकारी नशे के माया जाल में फँसा था.

                           रेल जब एक सुरंग से हो कर गुजर रही थी ,चारों ओर अंधेरा छाया था, बोगी की लाइटें दिये की तरह टिमटिमा रहीं थीं,ठीक उसी समय टी.सी. महोदय का अवतरण हुआ.अनासक्ति भाव से उन्होंने यात्रियों के टिकट परीक्षण का पुनीत कार्य प्रारंभ किया.शीघ्र ही वह हमारे दोस्त की बर्थ पर आ धमके. उसने भी प्रत्युत्तर में उसी अनासक्ति भाव से अपना टिकट और परिचय पत्र उनके हवाले कर दिया.लापरवाही से उस पर एक नजर डाल और अपने पास के चार्ट पर टिक लगाते हुए टी.सी.नहोदय ने हमारे दोस्त से उसका नाम पूछ लिया.यह तो बड़ी गड़बड़ हो गयी, डान क्विगजोट को टिकट और परिचय पत्र पर दर्ज नाम याद नहीं हो पाया था.उसने घबराकर अपना प्रिय तकिया कलाम बुदबुदा दिया-

"ओपड़ी गुड़गुड़दी एक्स वाई जेड की डेमोक्रेसी पालिसी अॉफ इंडिया,दैटइज़ भारत"

    बहसबाजों के शोरगुल में टी.सी. की समझ में कुछ नहीं आया,और वह हौले-हौले सिर हिलाता हुआ उसी तरह तरह आगे बढ़ गया जिस तरह भक्त जनों के शोरगुल के बीच देश आगे बढ़ रहा है.

                                   रेल कभी धीमे,कभी तेज ,यहाँ-वहाँ रुकते -रुकाते अपने गंतव्य की ओर बढ़ रही थी.अभी उसे चले मुश्किल से 2-3घंटे ही बीते थे कि बोगी के शौचालयों में पानी समाप्त हो गया.भारतियों की सहिष्णुता की  सच्ची परीक्षा यहीं पर होती है .सभी यात्रियों को संतोष था कि आस-पास की बोगियों के शौचालयों में तो पानी था ही.समय काटने के लिये हमारे दोस्त ने भी बोगी में जारी बहस में घुसने की पूरी -पूरी कोशिश की,पर उसके प्रयत्न असफल कर दिये गये.यहाँ भी हमारे टी.वी. चैनलों की तरह तटस्थ,निष्पक्ष विचारों की कोई कद्र न थी.थक-हार कर वह रेलवे द्वारा प्रदत्त बिस्तर के अंदर घुस कर रेल की बोगी के झूले का आनंद लेता हुआ सोने का प्रयत्न करने लगा.

                                        रेल जब चाहे ,जहाँ चाहे ,जितनी देर चाहे रुकने के सिद्धान्त पर चलायी जा रही थी.नियत स्टेशनों से अधिक अनियमित स्टेशनों पर रुक रही थी .लगता था ,समय से न चलने की कोई प्रतियोगिता या कोई विशेष सप्ताह की रेल विभाग ने उद्घोषणा कर रखी है.जब ऐसे ही किसी अनियमित स्टेशन पर रेल खड़ी हुई, एक उचक्का पीछे की किसी बोगी के यात्री की अटैची ले कर भागा.लेकिन यात्री सजग था ,उसने शोर मचा दिया और चोर को पकड़ने का प्रयत्न किया.लेकिन चोर यात्री के मुकाबले ताकतवर था,अपने को छुड़ा कर भाग निकला.उधर यात्री भी बड़ा ढीठ था ,चोर को पकड़ने के लिये उसके पीछे - पीछे भागा.इस गहमागहमी और शोरगुल से हमारे दोस्त की नींद खुल गयी और अपनी आदत से मजबूर बगैर आगे-पीछे सोचे-समझे प्लेटफार्म में उसने दौड़ लगा कर उस चोर को धर पकड़ा.

               क्रमश: (आगे की कहानी अागामी पोस्ट में)



                  

     

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